20130319

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 12. भक्तियोग



भक्ति की श्रेष्ठता (अध्याय 12 शलोक से 12) 
अर्जुन उवाच :
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥१२- १॥
दोनों में से कौन उत्तम हैं - जो भक्त सदा आपकी भक्ति युक्त रह कर आप की उपासना करते हैंऔर जो अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं।
 
श्रीभगवानुवाच :
 
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२- २॥
जो भक्त मुझ में मन को लगा कर निरन्तर श्रद्धा से मेरी उपासना करते हैंवे मेरे मत में उत्तम हैं।
 
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२- ३॥

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२- ४॥
जो अक्षरअनिर्देश्य (जिसके स्वरुप को बताया नहीं जा सकता)अव्यक्तसर्वत्र गम्य(हर जगह उपस्थित)अचिन्तीयसदा एक स्थान पर स्थितअचल और ध्रुव (पक्कान हिलने वाला) की उपासना करते हैं। इन्द्रियों के समूह को संयमित करहर ओर हर जगह समता की बुद्धि से देखते हुयेसभी प्राणीयों के हितकरवे भी मुझे ही प्राप्त करते हैं।
 
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥१२- ५॥
लेकिन उन के पथ में कठिनाई ज़्यादा हैजो अव्यक्त में चित्त लगाने में आसक्त हैं क्योंकि देह धारियों के लिये अव्यक्त को प्राप्त करना कठिन है।
 
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२- ६॥

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२-७॥
लेकिन जो सभी कर्मों को मुझ पर त्याग कर मुझी पर आसार हुये (मेरी प्राप्ति का लक्ष्य किये) अनन्य भक्ति योग द्वारा मुझ पर ध्यान करते हैं और मेरी उपासना करते हैं। ऍसे भक्तों को मैं बहुत जल्दि (बिना किसी देर किये) ही इस मृत्यु संसार रुपी सागर से उद्धार करने वाला बनता हूँ जिनका चित्त मुझ ही में लगा हुआ है (मुझ में ही समाया हुआ है)|
 
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥१२- ८॥
इसलियेअपने मन को मुझ में ही स्थापित करोमुझ में ही अपनी बुद्धि कोलगाओइस प्रकार करते हुये तुम केवल मुझ में ही निवास करोगे (मुझ में ही रहोगे)इस में को संशय नहीं है।
 
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥१२- ९॥
और यदि तुम अपने चित्त को मुझ में स्थिरता से स्थापित(मुझ पर अटूट ध्यान) नहीं कर पा रहे होतो अभ्यास (भगवान में चित्त लगाने के अभ्यास) करो और मेरी ही इच्छा करो हे धनंजय।
 
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥१२- १०॥
और यदि तुम मुझ में चित्त लगाने का अभ्यास करने में भी असमर्थ होतो मेरे लिये ही कर्म करने की ठानो। इस प्रकार,मेरे ही लिये कर्म करते हुये तुम सिद्धि (योग सिद्धि) प्राप्त कर लोगे।
 
 
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥१२- ११॥
और यदितुम यह करने में भी सफल न हो पाओतो मेरे बताये योग का आश्रयलेकर अपने मन और आत्मा पर संयम कर तुम सभी कर्मों के फलों को छोड़ दो (त्याग कर दो)।
 
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥१२-१२॥
अभ्यास से बढकर ज्ञान (समझ आ जाना) हैज्ञान(समझ) से बढकर ध्यान है।और ध्यान से भी उत्तम कर्ण के फल का त्याग है,क्योंकि ऍसा करते ही तुरन्त शान्ति प्राप्त होती है।
 
भक्तों के लक्षण (अध्याय 12 शलोक 13 से 20)


श्रीभगवानुवाच :
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥१२- १३॥

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१२- १४॥
जो सभी जीवों के प्रति द्वेष-हीन हैमैत्री(मित्र भाव) हैकरुणशाल है। जो 'मैं और मेरेके विचारों से मुक्त हैअहंकार रहित हैसुख और दुखः को एक सा देखता हैजो क्षमी है। जो योगी सदा संतुष्ट हैजिसका अपने आत्म पर काबू हैजो दृढ निश्चय है। जो मन और बुद्धि से मुझे अर्पित हैऍसा मनुष्यमेरा भक्तमुझे प्रिय है।
 
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१२- १५॥
जिससे लोग उद्विचित (व्याकुलपरेशान)नहीं होते (अर्थात जो किसी को परेशान नहीं करताउद्विग्न नहीं देता)और जो स्वयं भी लोगों से उद्विजित नहीं होताजो हर्षईर्षाभयउद्वेग से मुक्त हैऍसा मनुष्य मुझे प्रिय है।
 
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१२- १६॥
जो आकाङ्क्षा रहित हैशुद्ध हैदक्ष हैउदासीन (मतलब रहित) हैव्यथा रहित हैसभी आरम्भों का त्यागी हैऍसा मेरी भक्त मुझे प्रिय है।
 
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥१२- १७॥
जो न प्रसन्न होता हैन दुखी (द्वेष) होता हैन शोक करता है और न ही आकाङ्क्षा करता है। शुभ और अशुभ दोनों का जिसने त्याग कर दिया हैऍसा भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है।
 
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥१२- १८॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥१२- १९॥
जो शत्रु और मित्र के प्रति समान हैतथा मान और अपमान में भी एक सा है,जिसके लिये सरदी गरमी एक हैंऔर जो सुख और दुख में एक सा हैहर प्रकार से संग रहित है।जो अपनी निन्दा और स्तुति को एक सा भाव देता है (एक सा मानता है),जो मौनी है,किसी भी तरह (थोड़े बहुत में)संतुष्ट हैघर बार से जुड़ा नहीं है। जो स्थिर मति है,ऍसा भक्तिमान नर मुझे प्रिय है।
 
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥१२- २०॥
और जो श्रद्धावान भक्त मुझ ही पर परायण (मुझे ही लक्ष्य मानते) हुयेइस बताये गये धर्म अमृत की उपासना करते हैं (मानते हैं और पालन करते हैं)ऍसे भक्त मुझे अत्यन्त (अतीव) प्रियहैं।